मिलें हैं बस दो ही बार,
हुए अभी तोह हफ्ते चार.
वादों में उनके इंकार नहीं,
लेकिन जुबान पे प्यार का इज़हार नहीं.
सब्र दिखने के ये तरीके ,
बात छुपाने के सब सलीके,
कोई उनसे सीखे.
पर इशारे उनके करते तक़ाज़े,
दोनों जी रहे तूल-ए-अमल के सहारे.
एक दिन जिनको मिलना है,
बिना बहार के जिसको खिलना है-
उन दिलों को , उस चमन
को.
नजर-ए-दुनिया से बचाने की तरकीबें,
कोई उनसे सीखे…
शमशीर सा उनका ज़ेहन,
और उसपे ज़रीना का उनका बदन.
सब आएंगे काटने को जब जिगर मेरा;
शदीद एहसास तब मेरे मांगेंगे,
उसी नूर-ए-इलाही से उसका आदिल.
मुनफ़रीद निग़ाहों से चाबुक चलाना,
कोई उनसे सीखे…
-Early Autumn, 2015
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